नमक का दरोगा मुंशी प्रेमचंद की कहानी – class 11th Premchand Ki story in Hindi

class 11th Premchand Ki story in Hindi

नमक का दरोगा मुंशी प्रेमचंद की कहानी - class 11th Premchand Ki story in Hindi

नमक का दरोगा मुंशी प्रेमचंद की कहानी – class 11th Premchand Ki story in Hindi

दोस्तों यह कहानी शुरू होती है नमक विभाग से नमक विभाग में दरोगा पद के लिए नई नौकरियां निकली थी जिसके लिए बड़े-बड़े लोग वकील तक भी लाइन लगाए खड़े थे कैसे ना कैसे उनको यह नौकरी मिल जाए, उसमें तनख्वाह तो बहुत अच्छी नहीं थी लेकिन वह उपूरी आय, मतलब रिश्वत..बहुत ज्यादा मिलती थी तो इस नौकरी के लिए सभी बड़े लोग लालायित थे तो यह कहानी शुरू होती है मुंशी वंशीधर से।


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वह भी सीधे-साधे आदमी थे और अपने घर से नौकरी के लिए निकल पड़ते हैं और जाते समय उनके पिता जी उनको को समझाते हैं कि नौकरी में तनखा ही सब कुछ नहीं होती वह ऊपरी आय भी बहुत जरूरी है तनखा तो पूर्णमासी का चांद होती है जो एक बार मिलती है और धीरे-धीरे महीने भर में खत्म हो जाती है लेकिन जो रिश्वत होती है वह ऊपरी आय होती है उस से बरकत होती है वह उसे ईश्वर का आशीर्वाद बताते हैं बेटे को यह सब बता कर वह कहते हैं – वैसे भी तुम बहुत होशियार हो मेरी बातें समझ गए होंगे.. यह सब बता कर वह बेटे को नौकरी के लिए विदा कर देते हैं।


किस्मत की बात रही कि मुंशी वंशीधर अच्छे समय पर घर से निकले थे और जाते ही दरोगा पद के लिए नियुक्त हो गए जिसमें कुछ महीनों तक उन्होंने अपने कर्तव्य निष्ठा से काम किया और साथ में सारे बड़े अफसरों का दिल जीत लिया जिससे उनसे सारे बड़े अफसर खुश रहने लगे।


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एक दिन जहां पर यह रहते थे वह जगह नदी से 1 मील दूर थी जमुना नदी पूर्व में बहती थी, तो सारे अफसर और चपरासी लोग दारु पिए थे और चपरासी मस्त सो रहे थे वंशीधर भी अपने कमरे में सो रहे थे तभी पूर्व की ओर से जमुना नदी के पूर्व से तकबक तकबक आवाज सुनाई दी तभी बंशीधर मतलब दरोगा जी उठ बैठे और उन्होंने सोचा कि कुछ ना कुछ गड़बड़ तो जरूर ही है और उन्होंने अपना घोड़ा लिया ओर नदी की तरफ चल दिए तो उन्होंने देखा गाड़ियों की लंबी कतार है, तो उन्होंने डांट कर उन सभी से पूछा किसकी गाड़ी है यह.. क्या लगा है इनमें..? तो थोड़ी देर के लिए तो सभी अचंभित हो गए और कुछ नहीं बोल पाए लेकिन उनमें से एक आदमी थोड़ी देर बाद बोला – पंडित अलोपीदीन की गाड़ियां हैं दातागंज के..! बंशीधर थोड़ा चकित हुए कि पंडित अलोपीदीन इतने बड़े आदमी हैं तो उनको रोकना सही होगा क्या लेकिन उन्होंने अपना कर्तव्य नहीं भूला और पूछा इनमें क्या है.?


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जब किसी ने उत्तर नहीं दिया तो तो उन्होंने घोड़े को किनारे लगा कर बोरियां टटोली, तो उसमें नमक के ढेले थे फिर अब उन्हें गुस्सा आ गई कि नमक का गलत व्यापार किया जा रहा है तो उन्होंने बोला – बुलाइए अपने पंडित अलोपीदीन को, फिर उनका नौकर गया और पंडित अलोपीदीन को जगाया कि चलो हमारी गाड़ियां पकड़ ली गई है फिर वह अपने नौकर के साथ वहां पर गए उन्होंने सोच रखा था मन में कि रुपए देने से सारा मामला सेटल हो जाएगा क्योंकि रुपए देने से तो बड़े-बड़े लोग झुक जाते हैं।


तो पंडित अलोपीदीन वहां पहुंचते हैं वह भी बड़े होशियार आदमी और बुद्ध कुशल आदमी थे वहां जाते ही उन्होंने कहा साहब क्या गलती हो गई.. हम इधर से निकले और आपको चढ़ावा ना चढ़ाएं.. फिर अपने नौकर से कहते हैं कि साहब को एक – एक हजार के नोट दान में दीजिए!

लेकिन वंशीधर अपने कर्तव्य को लेकर अडिग थे तो उन्होंने साफ मना कर दिया और कहा चाहे एक लाख दो, चाहे दस हजार दो, चाहे हजार रुपए की गड्डियां दो मुझे कुछ नहीं चाहिए।


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इस पर पंडित अलोपीदीन को अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था.. और वो अपने नोटों की गड्डियां बढ़ाते जा रहे थे..1000 फिर..5000 फिर..10,000 फिर..15000 लेकिन मुंशी वंशीधर बिल्कुल भी अपने कर्तव्य से नहीं हटे और अपने कर्तव्य पर डटे रहे और अपने सिपाही बदलू से कहा की जाओ इस को गिरफ्तार कर लो।


लेकिन बदलू आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि वह छोटा आदमी था और पंडित अलोपीदीन बहुत बड़े आदमी थे.. लेकिन जैसे ही बदलू आगे बढ़ा और तो पंडित अलोपीदीन पीछे खिसक गया और कहने लगे कि साहब क्षमा कर दीजिए बहुत ही अच्छे हिर्दय से कहा… लेकिन मुंशी वंशीधर भी अपने कर्तव्य से बंधे हुए थे इसलिए उन्होंने उसे पकड़ ले गए और रात भर उसे जेल में रखा और अगले दिन उन्हें अदालत में पेश किया जाना था जब अदालत में पेश किया जाना था तो क्योंकि अलोपीदीन बहुत ही बड़ा आदमी था इसलिए अदालत के चपरासी वकील और यहां तक कि बड़े-बड़े लोग भी उसके लिए काम करते थे चपरासी तो फ्री में उसके लिए काम करते थे उसको सलाम करते थे इसलिए जब वह अदालत में गए तो उसे रिहा कर दिया गया उस पर कोई जुर्म नहीं लगाया गया और ना ही उन्हें जेल में बंद किया गया।


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लेकिन मुंशी वंशीधर फस गए, यहां पर धन की जीत हुई और जब मुंशी वंशीधर कोर्ट से बाहर निकले तो उन्हें ताने सुनाए गए जिससे वह बहुत दुखी हो गए और इसी तरह कुछ ही हफ्ते बीते थे उनको नौकरी करते हुए और इस केस के बाद उनको अपनी नौकरी छोड़नी पड़ गई और वह घर आ गए इस पर उनके बाबूजी भी बहुत नाराज हुए, और अपना सिर पीट कर रह गए और कहने लगे… कहा था इस बेवकूफ से.. इस जैसी संतान तो होना ही बेकार है, इस तरह की बातें करने लगे तो मुंशी वंशीधर बहुत दुखी हुए।


लेकिन कुछ ही दिन बाद पंडित अलोपीदीन उनके घर आते हैं अपने बढ़िया रथ से.. सबसे पहले मुंशी वंशीधर के पिता घर का दरवाजा खोलते हैं, और पंडित अलोपीदीन को देखते ही कहते हैं बहुत भाग्य हमारे कि आप हमारे घर पधारे और इस दुष्ट को क्षमा कर दीजिए ऐसी संतान तो होना ही बेकार है।


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इस पर पंडित अलोपीदीन जी कहते हैं ऐसा बिल्कुल नहीं है और पंडित अलोपीदीन जी घर के अंदर आते हैं और मुंशी वंशीधर को बुलाते हैं और इस पर मुंशी वंशीधर भी उनसे क्षमा मांग लेते हैं उस दिन के लिए और इस पर पंडित अलोपीदीन एक स्टांप पेपर निकालते हैं.. जिससे कि वह मुंशी वंशीधर को अपने यहां नौकरी पर रख लेते हैं और अपनी पूरी संपत्ति का स्थाई मैनेजर घोषित कर देते हैं इस पर मुंशी वंशीधर कहते हैं कि हमारी इतनी औकात कहां कि हम इस पद के लिए मान्य हो.. फिर पंडित अलोपीदीन जी कहते हैं कि मुझे ऐसे कर्तव्यनिष्ठा आदमी की जरूरत है जो अपना कर्म करें और अपने कर्म से अडिग ना हो इसलिए आप इस नौकरी के लिए बिल्कुल ही श्रेष्ठ है तो इस पर मुंशी वंशीधर कहते हैं जैसी आपकी आज्ञा.. और वह इस पद के लिए नियुक्त कर लिए जाते हैं उन्हें सालाना छः हजार रुपये और खाना रहना सब फ्री मिलता है।