हरिवंशराय बच्चन की कविता | Harivansh Rai Bachchan poems in hindi on life

Famous Harivansh Rai Bachchan Motivational poems, Shayari, kavita, lines, thoughts in hindi on life


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ओ गगन के जगमगाते दीप (Harivansh rai  bachchan famous poems in hindi)


ओ गगन के जगमगाते दीप

दीन जीवन के दुलारे

खो गये जो स्वप्न सारे,

ला सकोगे क्या उन्हें फिर खोज हृदय समीप?

ओ गगन के जगमगाते दीप।।


यदि न मेरे स्वप्न पाते,

क्यों नहीं तुम खोज लाते

वह घड़ी चिर शान्ति दे जो पहुँच प्राण समीप?

ओ गगन के जगमगाते दीप।।


यदि न वह भी मिल रही है,

है कठिन पाना-सही है,

नींद को ही क्यों न लाते खींच पलक समीप?

ओ गगन के जगमगाते दीप।।


मैंने गाकर दुख अपनाए

कभी न मेरे मन को भाया,

जब दुख मेरे ऊपर आया,

मेरा दुख अपने ऊपर ले कोई मुझे बचाए

मैंने गाकर दुख अपनाए।।


कभी न मेरे मन को भाया,

जब-जब मुझको गया रुलाया,

कोई मेरी अश्रु धार में अपने अश्रु मिलाए

मैंने गाकर दुख अपनाए।।


पर न दबा यह इच्छा पाता,

मृत्यु-सेज पर कोई आता,

कहता सिर पर हाथ फिराता-

’ज्ञात मुझे है, दुख जीवन में तुमने बहुत उठाये

मैंने गाकर दुख अपनाए।।


चल मरदाने (Harivansh Rai Bachchan famous deshbhakti poems in hindi)


चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत।।



एक हमारा देश, हमारा

वेश, हमारी कौम, हमारी

मंज़िल, हम किससे भयभीत।।



चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत।।



हम भारत की अमर जवानी,

सागर की लहरें लासानी,

गंग-जमुन के निर्मल पानी,

हिमगिरि की ऊंची पेशानी

सबके प्रेरक, रक्षक, मीत।।



चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत।।



जग के पथ पर जो न रुकेगा,

जो न झुकेगा, जो न मुडेगा,

उसका जीवन, उसकी जीत।।



चल मरदाने, सीना ताने,

हाथ हिलाते, पांव बढाते,

मन मुस्काते, गाते गीत।।


कोशिश करने वालों की कभी हार नही होती (Harivansh rai bachchan Motivational poems, Shayari in hindi)


लहरों से डरकर नौका कभी पार नहीं होती, कोशिश करने वालो की कभी हार नहीं होती..!!

नन्ही चीटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है..!!

मन का विश्वास रगों में साहस भरते जाता है, चढ़ कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है.!!

आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालो की कभी हार नहीं होती..!!


आत्‍मपरिचय : हरिवंश राय बच्चन (Harivansh Rai Bachchan famous kavita in hindi on life)


मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ,

फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ;

कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर

मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ..!


मैं स्‍नेह-सुरा का पान किया करता हूँ,

मैं कभी न जग का ध्‍यान किया करता हूँ,

जग पूछ रहा है उनको, जो जग की गाते,

मैं अपने मन का गान किया करता हूँ..!


मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,

मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ;

है यह अपूर्ण संसार ने मुझको भाता

मैं स्‍वप्‍नों का संसार लिए फिरता हूँ..!


मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,

सुख-दुख दोनों में मग्‍न रहा करता हूँ;

जग भाव-सागर तरने को नाव बनाए,

मैं भव मौजों पर मस्‍त बहा करता हूँ..!


मैं यौवन का उन्‍माद लिए फिरता हूँ,

उन्‍मादों में अवसाद लए फिरता हूँ,

जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,

मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ..!


कर यत्‍न मिटे सब, सत्‍य किसी ने जाना?

नादन वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!

फिर मूढ़ न क्‍या जग, जो इस पर भी सीखे?

मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भूलना..!


मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,

मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता;

जग जिस पृथ्‍वी पर जोड़ा करता वैभव,

मैं प्रति पग से उस पृथ्‍वी को ठुकराता..!


मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,

शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,

हों जिसपर भूपों के प्रसाद निछावर,

मैं उस खंडर का भाग लिए फिरता हूँ..!


तीर पर कैसे रुकूँ मैं आज लहरों में निमंत्रण! / हरिवंशराय बच्चन (Harivansh rai bachchan famous poems in hindi on life)

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।

रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे,

वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे

वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता,

शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें,

इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में,

है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल – कंपन.!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं,आज लहरों में निमंत्रण.!


विश्व की संपूर्ण पीड़ा सम्मिलित हो रो रही है,

शुष्क पृथ्वी आँसुओं से पाँव अपने धो रही है,

इस धरा पर जो बसी दुनिया यही अनुरूप उसके–

इस व्यथा से हो न विचलित नींद सुख की सो रही है,

क्यों धरणि अब तक न गलकर लीन जलनिधि में गई हो?

देखते क्यों नेत्र कवि के भूमि पर जड़-तुल्य जीवन?

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण.!


जड़ जगत में वास कर भी, जड़ नहीं व्यवहार कवि का

भावनाओं से विनिर्मित, और ही संसार कवि का,

बूँद के उच्छ्वास को भी, अनसुनी करता नहीं वह,

किस तरह होता उपेक्षा-पात्र पारावार कवि का,

विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित, हो तरल बनने, पिघलने,

त्याग कर आया यहाँ कवि, स्वप्न-लोकों के प्रलोभन।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।


जिस तरह मरु के हृदय में, है कहीं लहरा रहा सर,

जिस तरह पावस-पवन में, है पपीहे का छिपा स्वर

जिस तरह से अश्रु-आहों से, भरी कवि की निशा में

नींद की परियाँ बनातीं, कल्पना का लोक सुखकर

सिंधु के इस तीव्र हाहाकार ने, विश्वास मेरा,

है छिपा रक्खा कहीं पर, एक रस-परिपूर्ण गायन!

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।


नेत्र सहसा आज मेरे, तम-पटल के पार जाकर

देखते हैं रत्न-सीपी से, बना प्रासाद सुन्दर

है खड़ी जिसमें उषा ले, दीप कुंचित रश्मियों का,

ज्योति में जिसकी सुनहरली, सिंधु कन्याएँ मनोहर

गूढ़ अर्थों से भरी मुद्रा, बनाकर गान करतीं

और करतीं अति अलौकिक, ताल पर उन्मत्त नर्तन।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।


मौन हो गंधर्व बैठे, कर श्रवण इस गान का स्वर,

वाद्य-यंत्रों पर चलाते, हैं नहीं अब हाथ किन्नर,

अप्सराओं के उठे जो, पग उठे ही रह गए हैं,

कर्ण उत्सुक, नेत्र अपलक, साथ देवों के पुरन्दर

एक अद्भुत और अविचल, चित्र-सा है जान पड़ता,

देव बालाएँ विमानों से, रहीं कर पुष्प-वर्णन।

तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।


दीर्घ उर में भी जलधि के, हैं नहीं खुशियाँ समाती,

बोल सकता कुछ न उठती, फूल वारंवार छाती,

हर्ष रत्नागार अपना, कुछ दिखा सकता जगत को,

भावनाओं से भरी यदि, यह फफककर फूट जाती,

सिन्धु जिस पर गर्व करता, और जिसकी अर्चना को

स्वर्ग झुकता, क्यों न उसके, प्रति करे कवि अर्घ्य अर्पण।

तीर पर कैसे रुकूँ में, आज लहरों में निमंत्रण।


है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है? / हरिवंशराय बच्चन (Harivansh rai bachchan poems in hindi on life)



कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था

भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था।


स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा

स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था

ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को

एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।


बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम

का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम

प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा

थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम

वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली

एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।


क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई

कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई

आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती

थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई

वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना

पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।


हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा

वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा

एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर

भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा

अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही

ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।


हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए

पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए

दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर

एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए

वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे

खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।


क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना

कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना

नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका

किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना

जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से

पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है।


क़दम बढाने वाले: कलम चलाने वाले / हरिवंशनिमन् (Famous Harivansh rai bachchan motivational shayari in hindi)


अगर तुम्हारा मुकाबला

दीवार से है,

पहाड़ से है,

खाई-खंदक से,

झाड़-झंकाड़ से है

तो दो ही रास्ते हैं-


दीवार को गिराओ,

पहाड़ को काटो,

खाई-खंदक को पाटो,

झाड़-झंकाड़ को छांटो, दूर हटाओ

और एसा नहीं कर सकते-

सीमाएँ सब की हैं-

तो उनकी तरफ पीठ करो, वापस आओ।

प्रगति एक ही राह से नहीं चलती है,

लौटने वालों के साथ भी रहती है।

तुम कदम बढाने वालों में हो

कलम चलाने वालो में नहीं

कि वहीं बैठ रहो

और गर्यवरोध पर लेख-पर-लेख

लिखते जाओ..!!



अग्निपथ कविता – हरिवंशराय बच्चन ( agneepath famous harivansh rai bachchan poems in hindi on life)


वृक्ष हों भले खड़े,

हों घने हों बड़े,

एक पत्र छाँह भी,

माँग मत, माँग मत, माँग मत,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।



तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी,

तू न मुड़ेगा कभी,

कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


यह महान दृश्य है,

चल रहा मनुष्य है,

अश्रु श्वेत रक्त से,

लथपथ लथपथ लथपथ,

अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।


नीड़ का निर्माण  (famous Harivansh Rai Bachchan poems in hindi)


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर।


वह उठी आँधी कि नभ में

छा गया सहसा अँधेरा,

धूलि धूसर बादलों ने

भूमि को इस भाँति घेरा,


रात-सा दिन हो गया, फिर

रात आ‌ई और काली,

लग रहा था अब न होगा

इस निशा का फिर सवेरा,


रात के उत्पात-भय से

भीत जन-जन, भीत कण-कण

किंतु प्राची से उषा की

मोहिनी मुस्कान फिर-फिर


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर।


वह चले झोंके कि काँपे

भीम कायावान भूधर,

जड़ समेत उखड़-पुखड़कर

गिर पड़े, टूटे विटप वर,


हाय, तिनकों से विनिर्मित

घोंसलो पर क्या न बीती,

डगमगा‌ए जबकि कंकड़,

ईंट, पत्थर के महल-घर


बोल आशा के विहंगम,

किस जगह पर तू छिपा था,

जो गगन पर चढ़ उठाता

गर्व से निज तान फिर-फिर


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर।


क्रुद्ध नभ के वज्र दंतों

में उषा है मुसकराती,

घोर गर्जनमय गगन के

कंठ में खग पंक्ति गाती;


एक चिड़िया चोंच में तिनका

लि‌ए जो जा रही है,

वह सहज में ही पवन

उंचास को नीचा दिखाती


नाश के दुख से कभी

दबता नहीं निर्माण का सुख

प्रलय की निस्तब्धता से

सृष्टि का नव गान फिर-फिर


नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्णान फिर-फिर।


पथ की पहचान  (famous harivansh rai bachchan Motivational poems in hindi on life)


पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले

पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,

हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जबानी,

अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,

पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,

यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,


खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।



है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,

है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,

किस जगह यात्रा खतम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,

है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे

कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,


आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,

देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,

और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,

ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,

किंतु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,


स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।


स्वप्न आता स्वर्ग का, दृग-कोरकों में दीप्ति आती,

पंख लग जाते पगों को, ललकती उन्मुक्त छाती,

रास्ते का एक काँटा, पाँव का दिल चीर देता,

रक्त की दो बूँद गिरतीं, एक दुनिया डूब जाती,

आँख में हो स्वर्ग लेकिन, पाँव पृथ्वी पर टिके हों,


कंटकों की इस अनोखी सीख का सम्मान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।

यह बुरा है या कि अच्छा, व्यर्थ दिन इस पर बिताना,

अब असंभव छोड़ यह पथ दूसरे पर पग बढ़ाना,

तू इसे अच्छा समझ, यात्रा सरल इससे बनेगी,


सोच मत केवल तुझे ही यह पड़ा मन में बिठाना,

हर सफल पंथी यही विश्वास ले इस पर बढ़ा है,


तू इसी पर आज अपने चित्त का अवधान कर ले।

पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।